Friday 31 May 2013

सम्बल हमारा हो

तुम्ही हो प्राण मेरे श्वांस भी अस्तित्त्व सारा हो
तुम्ही पूजन हवन सत्कर्म या सम्बल हमारा हो

तुम्हारा मुस्कराना ही मुझे संस्पर्श जैसा है
न पूँछो आज मेरे चित्त का व्यवहार कैसा है
तुम्ही देती मुझे हो कथ्य में अंगार से चुम्बन
कसी भुजपाश में हो कामना है स्वप्न ऐसा है

उड़ी जो लट तुम्हारी तो लगे ये मेघ हारा हो
तुम्ही पूजन हवन सत्कर्म या सम्बल हमारा हो

नयन के वार से घायल ह्रदय होकर सुनो पुलके
चमत्कारी तुम्हारे हाथ के होते प्रिये फुलके
तुम्हारे संग में लगता मिला है इन्द्र सम सुख भी
तभी तो गीत गाता हूँ तुम्हारे ही सदा खुल के

तुम्ही ध्रुव सम सुनो इस सृष्टि में शुचि एक तारा हो
तुम्ही पूजन हवन सत्कर्म या सम्बल हमारा हो

निरन्तर चाहता मन है प्रफुल्लित सी रहो हर क्षण
सदा आशीष देकर कष्ट हर लें देव देवी गण
कवच बन कर रहूँ तत्पर तुम्हे आनन्द से भर दूँ
हमारी प्रीति की गाथा कहे जग में प्रिये कण कण

बनें तेरा सहारा हम हमें तेरा सहारा हो
तुम्ही पूजन हवन सत्कर्म या सम्बल हमारा हो
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ 

Wednesday 29 May 2013

वाणी वन्दन

माँ प्रणाम भाव के सुमन आज अर्पित हैं
भाव सप्तनद का सरस जल हो गया
भाव से निकलती है वन्दना तुम्हारी अम्ब
भाव ही तुम्हारे पद पंकजों को धो गया
भाव की ही भूख तुमको भी ये सुना है नित्य
आज उर भावसिन्धु मध्य कहीं खो गया
भाव का ही नवनीत खोजता हूँ भोग हेतु
भक्तिभाव हर्ष वृष्टि से मुझे भिगो गया
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

अग्रगण्य अग्रपूज्य गणपति को समर्पित दो छन्द



जो पितु कण्ठ भुजंग दिखें वह शुण्ड उठा निज कण्ठ फिराते
मस्तक इन्दु लखें मचलें फिर क्रोधित हों शशि भूमि पठाते
गंग जटा डमरू कर में लख के डम की ध्वनि संग नहाते
बाल गणेश पिता शिव के उर हर्ष भरें सुत धर्म निभाते

देख शिवत्व महागणनायक भी करते शिव सी हर लीला
शुण्ड भरें जल, शीश धरें, कि उछाल करें गिरिमण्डल गीला
जो वृषवाहन दृष्टि पड़े, मुख मूषक में रख मोदक पीला,
घोर अमंगल नष्ट करें पथ कोमल सा कर दें पथरीला
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ 

Monday 27 May 2013

दे विधान भी कड़े कड़े

चीन ने भारतीय सीमा के अन्दर घुसकर ५ किलोमीटर लम्बी सड़क बनाई....तब कवि को लेखनी उठानी पड़ती है.......जागरण के लिए.....
1
भारती महान किन्तु अन्धकार का वितान, है अमा समान ज्ञान का नहीं प्रसार है
द्रोह वृद्धि की कमान, भ्रष्टनीति की मचान, क्यों सजी हुई कि स्वाभिमान तार तार है 
मानवीयता न ध्यान, पाप पुण्य व्यर्थ मान, दानवी मनुष्य का मनुष्य पे प्रहार है 
धर्म का रहा न मान, रुग्ण आँख नाक कान, शत्रु का लखो विवेक नाश हेतु वार है
2
क्यों नपुन्सकी प्रवृत्ति का प्रसार बार बार, और राष्ट्र शत्रु हौसले लिए बड़े बड़े
अंडमान के दिए गए उसे अनेक द्वीप, रो रहा त्रिवर्ण केतु क्यों दिया बिना लड़े
भीरु संसदीय कार्यपालिका बनी अपार, प्रश्न तो महत्त्वपूर्ण आज ही हुए खड़े
त्याग लोकतन्त्र वीर हाथ में संभाल राज्य देश के निमित्त दे विधान भी कड़े कड़े
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Wednesday 22 May 2013

प्रहार ये प्रचण्ड है


खण्ड खण्ड में विभक्त है मनुष्यता अपार
आसुरी प्रवृत्ति का प्रहार ये प्रचण्ड है
आ रहा समक्ष भी न देव शक्ति का प्रभाव
दुष्ट को प्रताड़ना विधान या न दण्ड है
सन्त हीन है समाज, शक्तिवान में प्रभूत --
आज देख लो सखे बढ़ा हुआ घमण्ड है
भारती अपंग हो गई सुनो परन्तु मित्र
घोष हो रहा कि राष्ट्र नित्य ये अखण्ड है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Monday 20 May 2013

क्यों क्लीवत्व नदी बहती


सुनो बली है भारत भू अन्याय नहीं किंचित सहती
सत्ता के गलियारों में तब क्यों क्लीवत्व नदी बहती
सच मानो हर मन में हमको क्रान्ति जगाना आता है
पाक बंग या चीन सरीखों को समझाना आता है
सत्य धर्म की रक्षा में हैं प्राण दान भी दे देते
तुष्ट करे रणचंडी को वो चक्र चलाना आता है
वक्र दृष्टि हो जाये हम पर जो वो दृष्टि नहीं रहती
सत्ता के गलियारों में तब क्यों क्लीवत्व नदी बहती
राष्ट्रवाद बलवान बड़ा है तभी सुनो यह देश टिका
पर क्षत्रप डरपोक बड़ा या दो कौड़ी के मोल बिका
तभी शत्रु मेरे घर में घुसकर अधिकार जताता है
ज्ञानी कह देते प्रभाव भी जाने इसको क्यों कलि का
भारत माँ वीरता त्याग को कभी नहीं सुन लो कहती
सत्ता के गलियारों में तब क्यों क्लीवत्व नदी बहती
ये आह्वान सुनो मेरा है उठो भारती पुत्र चलो
वक्ष चीर दो आज शत्रु का और शीश उसका मसलो
अंशुमान की अग्नि तपाये या हिमगिरि दे हाड़ गला
किन्तु निराशा में आकर तुम मत अपने यों हाथ मलो
ये विवेक से युक्त शक्ति है नहीं किसी को भी डहती
सत्ता के गलियारों में तब क्यों क्लीवत्व नदी बहती
झाला बोला आज स्वर्ग से बोल पडा राणा सांगा
मिला मात्र अधिकार उसी को जिसने लड़कर के माँगा
क्या भिक्षा में पाण्डुपुत्र ले पांच गाँव भी पाए थे
उठा न क्यों यमदण्ड शीश अरि क्यों न उसी पर था टांगा
त्याग तपस्या योग यहीं पर मित्र तरंगित हो लहती
सत्ता के गलियारों में तब क्यों क्लीवत्व नदी बहती
सुनो बली है भारत भू अन्याय नहीं किंचित सहती
सत्ता के गलियारों में तब क्यों क्लीवत्व नदी बहती
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Friday 17 May 2013

काव्य साधना


काव्य साधना न व्यर्थ है कभी सदैव जान ये मनुष्य को सदा मनुष्यता सिखाती है
शारदा कृपा विशेष हो तभी मिले कवित्व छन्दसिद्धि देवतुल्य आज भी बनाती है
दीन या निराश चित्त में यही भरे उमंग और अंग अंग मध्य चेतना जगाती है
छन्द शास्त्र ज्ञान युक्त जो हुआ प्रवीण मित्र ये विधा महान मोक्ष भी उसे दिलाती है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Thursday 16 May 2013

प्रणाम है


नष्ट हो बनारसी प्रभात का प्रभाव चाह,
द्रोह से बची अयुद्ध क्षेत्र की न शाम है
और वन्दना विरोध व्यर्थ वे करें सदैव,
किन्तु रुद्ध भी उन्हें न चाँदनी न घाम है
माँ महान ये कुपुत्र को वरे, करे प्रदान,
किन्तु क्यों दुराग्रही कृतघ्नता सकाम है
मै ऋणी अपार, वन्दना करूँ, रहूँ कृतज्ञ,
भारती तुझे सदैव दास का प्रणाम है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Wednesday 15 May 2013

तुलसीवन है



सकुटुम्ब रहें


जनतन्त्र कलंकित

छल शक्ति बड़ी जग में जिससे हर बार परास्त हुआ बल है
कलि में बस सत्य यही सुन लो सबसे बढ़ के मति कौशल है
सरकार गई यह जान तभी जनता लुटती न कोई हल है
जनतन्त्र कलंकित घोर लखो अति पीड़ित ये वसुधातल है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी 
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Tuesday 14 May 2013

चिंतन के धरातल पर एक मुक्तक


कभी विचारो सत्य विकट है हम तो सब सुख पाते हैं
किन्तु त्यागते धर्म सनातन और नहीं पछताते हैं
मेरे जो आराध्य राम हैं बंदीगृह में पड़े हुए
हम सोते ए. सी. में प्रभु जी तम्बू में सो जाते हैं
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Monday 13 May 2013

शिव का समन्वयवाद




मस्तक सोम धरा विष कण्ठ, न वैर यहाँ शिव ने पनपाया
शीश धरा निज गंग परन्तु ,न नेत्र तृतीय खुला न जलाया
वाहन सिंह दिया निज संगिनि, तो वृष ही अपने हित भाया
आज समन्वय चाह रहा यह भारत जो शिव ने सिखलाया

कण्ठ भुजंग अनेक पड़े, शिव चन्दन हैं, विष व्याप न पाया
पुत्र किये द्वय युक्त मयूर व मूषक से, न विरोध जताया
वैर महा जिनमे, उनको अपना कर के, गिरि धाम बसाया
आज समन्वय चाह रहा यह भारत जो शिव ने सिखलाया
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

घोटाला आदर्श है

जो परम्परा है भारतीय श्रेष्ठ ही सदैव विश्वानुकरण हेतु ढला आदर्श है
नारी देवी नर राम रूप ही रहा है यहाँ एक एक यहाँ की सुकला आदर्श है
आज कलि का प्रभाव छा रहा है घोर तम खोज वीर कहाँ गया भला आदर्श है
कोयला है, चारा, टू ज़ी, थ्री जी, सी डब्ल्यू जी, तोप आज इस भूमि मध्य घोटाला आदर्श है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Sunday 12 May 2013

तू समर्थ है


1
जान 'प' से है पवित्र 'र' से रचना करे जो', शु' से शुभता लिए परशु का ये अर्थ है
'रा' से राजनैतिक और 'म' से मर्यादायुक्त राम को न जाने यदि जीवन ही व्यर्थ है
विप्रवंश नायक ने जो दिखाया मार्ग श्रेष्ठ, देख, जाग विप्र आज हो रहा अनर्थ है
ले  उठा ध्वजा सनातनी संभाल राजनीति श्रेष्ठ कार्य हेतु एकमात्र तू समर्थ है
2
शूकरों का परिवार करे उर पे प्रहार कहे खाते विष्ठा भारती को भी खिलाएंगे
माँ बहन अपनी भी रखते रखैल सदा 'वन्दे मातरम' वाला गान नहीं गायेंगे
क्लीव सांसदों से हमे कोई अब आस  नहीं जागे हम पुत्र भारती के हैं बताएँगे
भूल गया गुजरात द्रोहियों का है समाज पूर्ण राष्ट्र में सुकृत्य वही दोहराएंगे
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Friday 10 May 2013

भारती अम्ब है

सजाया गया भाल दे के लहू भारती अम्ब है नित्य गाया गया
सदा वन्दना है ध्वजा की  स्वरों में  हमें स्वाभिमानी बनाया गया
यही राष्ट्र है आर्य भू वेद का घोष भी तो यहीं पे सुनाया गया
हमें तो पता भी नहीं द्रोह का वृत्त कैसे यहाँ खींच लाया गया
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ 

क्यों न अभीष्ट दिया


घोर दयामय हो प्रभु जी  नृप तुल्य कृपावश भृत्य किया
अज्ञ सुविज्ञ बना तुमने प्रतिभा हर दे कृतकृत्य किया
पंगु बना तब श्रृंगजयी हर शैल धरा पर नृत्य किया
क्यों न अभीष्ट दिया मुझको तव ध्यान धरा श्रम नित्य किया
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Thursday 9 May 2013

माँ की महानता का एक चित्र देखिये


पुलक उठा था तन मन अंग अंग मेरा जब प्रिय पुत्र गर्भ मध्य तू समाया था
पद जननी का किया तूने ही प्रदान मुझे थी अपूर्ण पूर्ण मुझे तूने ही बनाया था
हँस हँस के सदैव लोरियां सुनाईं तुझे निज तुष्टि हेतु तुझे वक्ष से लगाया था
जग कहे ऋणी पुत्र को सदैव माँ का किन्तु ऋणभार तूने पुत्र मुझपे चढ़ाया था
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
लखनऊ

Wednesday 8 May 2013

बढे फिर युद्ध पिपासा


और नहीं प्रिय दो मुझको तुम झूठ भरी अब व्यर्थ दिलासा
धर्म गया तप योग गया मन भारत का लगता अति प्यासा
वार प्रचण्ड करे अरि देख बढ़ा तम है हर ओर कुहासा
आज जगे फिर से यह भारत घोर बढे फिर युद्ध पिपासा
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

ब्रह्म दिखे


लोभ न मोह न मत्सर हो तपनिष्ठ रहे यह जीवनधारा
मुक्त रहूँ बस तत्त्व गहूँ भवबन्धन काट मिले छुटकारा
हो धृति और क्षमा दमनेन्द्रिय मानवता हित चिन्तन सारा
ब्रह्म दिखे जड़ चेतन में कुछ भेद न हो अपना व तुम्हारा
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Tuesday 7 May 2013

सैनिक संगिनि


सैनिक युद्ध निमित्त गया निज प्राण चला वह दांव लगाने
राष्ट्र महाऋण जो उसपे हर मूल्य चला वह आज चुकाने
वन्दन है अभिनन्दन है जग में अमरत्व चला वह पाने
वीर महा उसकी वह संगिनि पीर नहीं जिसकी जग जाने
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Monday 6 May 2013

गणपति सुनो


अग्रपूज्य गणपति सुनो करूँ ब्रह्म का बोध
लिख कर कर दूँ व्यक्त भी रंच न हो अवरोध

प्रथम वन्दना आपकी रिद्धि सिद्धि के संग
पूर्ण करो संकल्प यह हो न सके व्रत भंग
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

यही तन्त्र उसे भाता है

सर्वश्रेष्ठ है विशाल भारतीय लोकतन्त्र पूर्ण विश्व मुक्त कन्ठ गान यही गाता है

 राष्ट्रभाव एक एक व्यक्ति में भरा हुआ है मान्यता कि पूर्ण देश भूमि नहीं माता है 

यद्यपि घोटाला भ्रष्टाचार भी बढ़ा अतीव किन्तु लोकतन्त्र यहाँ प्राण का प्रदाता है

 भारत का मतदाता है महान जागरूक इसीलिए मात्र यही तन्त्र उसे भाता है

 रचनाकार

डॉ आशुतोष वाजपेयी

ज्योतिषाचार्य

 लखनऊ 

कुलोत्थान को


धारते धनुष बाण आसुरी विनाश हेतु पीत वस्त्र धारते हो देव कुलोत्थान को
पुण्डरीक के समान नेत्र वाले श्याम वर्ण करता प्रणाम रघुवंश वाली आन को
भो! अजानबाहु वाम जानकी करूँ प्रणाम उनके सहित तव सेवी हनुमान को
चाहता हूँ वेद ऋचा गूँजती रहे सदैव नष्ट कर दो तुरन्त आसुरी विधान को
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Sunday 5 May 2013

असुर लूटते लाज


करे न द्रोही पुत्र को भारत माँ स्वीकार
श्राप भयंकर दे चुकी शेष दण्ड का वार

है प्रधान मन्त्री सुनो भारत का जब मौन
सेना को निर्देश दे तब फिर बोलो कौन

भीरु बने जीते रहे तो जीना है व्यर्थ
राष्ट्र हेतु बलिदान दो जीवन का तब अर्थ

बढ़ो बन्धु पुरुषार्थ को तो पाओगे ध्येय
भोगो में रत हो नहीं सुरा त्याज्य है पेय

उठो वीर जागो करो धर्मकर्म विस्तार
असुर प्रभावी हो रहे वे धरती पर भार

जननी धरती भी सुनो पुत्र पुकारे आज
तुम निष्क्रिय बैठे तभी असुर लूटते लाज

रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

कुटुम्बियों ने ही बनाया है


क्रोध में अपार सिंहनी समान रूप धार
बोल पडी संगिनी मुझे सदा सताया है
काव्य साधना पथी बना रहा सदैव बोल
एक भी छदाम किन्तु क्यों नहीं कमाया है
एक लेखनी धनी दिखा मुझे मनुष्य मूर्ख
जो कि धनिकों के गेह जा के जन्म पाया है
और जो प्रसिद्धि पा गए उन्हें प्रसिद्ध भी तो
उनके धनी कुटुम्बियों ने ही बनाया है
रचनाकार
डॉ आशुतोष  वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Friday 3 May 2013

कुछ दोहा छन्द


कुछ दोहा छन्द  प्रस्तुत हैं-----

कभी कभी मन में उठें प्रश्न बड़े गम्भीर
उत्तर प्राप्त न हो सकें बढ़ती जाती पीर

स्वार्थ बढ़ा जग में बड़ा द्रोह करें जन आज
भ्रष्टाचारी हो गया पूरा श्रेष्ठ समाज

सीमा पर घुसपैठ है शत्रु बना है चीन
भारत क्यों पुरुषार्थ से आज लग रहा हीन

क्यों प्रसार में है सफल आसुर पन्थ व काम
रावण घर घर में बढ़े कब आओगे राम

प्रभु इतनी सामर्थ्य दो धरा बना दूँ आर्य
कलियुग में यद्यपि कठिन लगता है यह कार्य

रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य, लखनऊ

Thursday 2 May 2013

क्यों वीर हो रोध में


क्या हो रहा राष्ट्र में देख लो लोग आते नहीं क्यों कभी क्रोध में
क्यों भूल के दिव्य आर्यत्व को हैं लगे व्यर्थ के आसुरी शोध में
हुँकारती भूमि जो थी सदा आज क्यों तुष्ट है शान्ति के बोध में
पन्थी बनो वीरता पन्थ के नष्ट हो शत्रु क्यों वीर हो रोध में
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

प्राण त्याग के चला गया



स्वाभिमानहीन कार्यपालिका लखो कि देश को चला रही कुतथ्य वक्ष को जला गया
और आसुरी प्रहार हो रहे अनेक बार किन्तु राजनीति देख टूट हौसला गया
राक्षसी प्रवृत्तियुक्त शूकरों को मृत्युदण्ड दे दिया इसीलिये जवान वो छला गया
व्यर्थ दंश झेलता रहा अनेक वर्ष नेक सर्वजीत हाय प्राण त्याग के चला गया

सर्वजीत क्या गया चली गई कि आस साथ लोकतन्त्र देश का रहा नहीं हमारा है
ये प्रधान भी नपुन्सकी प्रवृत्ति युक्त बन्धु लूट लूट के हमें बना रहा बेचारा है
भारती सुवक्ष पे कुपुत्र का प्रहार देख सत्य धर्म का न शेष एक भी सहारा है
लो उठा महान शस्त्र हाथ में तुरन्त मित्र आर्यखण्ड, आर्यदेश पूर्ण ये तुम्हारा है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

Wednesday 1 May 2013

कथा अपनी है


मै पुरुषार्थ करूँ तुम वैभव भोग करो उर ठान ठनी है
शक्ति तुम्ही मम के हित हो तुमसे मिल के मन नित्य धनी है
कण्टक हों न कभी पथ में जिस ओर चलो अभिलाष घनी है
प्रेम कहीं पर भी जब उद्धृत हो समझो कि कथा अपनी है
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ

पिया करते हैं


क्या श्रम है श्रम का न महत्त्व अरे श्रम दीन किया करते हैं
पीर न शान्त न भूख गई चिथड़े वह नित्य सिया करते हैं
शोषक तो सब भोग करें लख जीवन ऐश जिया करते हैं
क्यों श्रम की महिमा गहते मधु भी श्रमहीन पिया करते हैं
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ