Thursday 10 April 2014

केत्ती महान संस्कृति हमार

इक दायें गएन हम ख्यातन माँ कुछ ताजा मिलै तु खाय लेई
कुछ प्याट अपन भर लेई औरु घर खातिर कुछ ढरकाय लेई
शहरन मा तौ बासी बिकात उई पर महंगाई न खाये द्यात
हम सोचि रहेन एत्ता भरि झौआ जाये कि हम न्यौताय लेई

पर यू तौ च्वारी जानि परै हम कइसन अइसन काम करी
घरि से झौआ तौ लई आएन पर कइसन चुप्पे चाप भरी
यू पाप भयंकर जानि परै यहि खातिर हम सकुचाय गएन
पर जिउ ललचावै बड़ी ज्वार लखि कै तरकारी हरी हरी

तब तक इक गवईं ताड़ि गवा हमका वह तौ गोहराय लागि
हम समझा वा दिक्काय गवा जियरा मा ओहिकै बरै आगि
मंथर मंथर आवा नगीच हमसे पूछेस का बात कहौ
हम मन ही मन थर्राय गएन स्वांचा कैसेउ अब चली भागि

चुप्पै हमका लखि कै ब्वाला कछु चही अगर बतलाय द्याओ
तुम शहरी पाहुन हौ हमरे पानी संगै गुडु थ्वाडि खाओ
दुपहरिया हियैं बिताय ल्याओ चारपाइयाँ बिरवा तरै परी
गन्ना पेराई कई रहेन सुनौ रस पियो थ्वाड़ फिर पहुडि जाओ

संझा का फिर जब तुम जइहौ कछु फल अनाज संग बाँधि द्याब
हमरे द्वारे पाहुन आवा हम तौ अब पूरै पुन्नि ल्याब
हम भौचक लखी बडक्का सा तब तक गिलास वा भरि लावा
गटकेन पूरा फिर पहुडि गएन खुश हमका कीन्हेस ग्वाडि दाब

संझा का जब हम उठेन लखा झौआ हमार पूरा भरि गै
जियरा जुड़ाए गा सांचि कही मनु का कलेश झर झर झरि गै
वा ब्वाला हमसे फिरि आयो कहि कै हमरी पैलगी किहिस
साथै मा ब्वालि पड़ा आयो लागत अस संकट सब हरि गै

हम झौआ लई चल पड़ेन रास्ता मा विचार उर कौंधि गवा
केत्ती महान संस्कृति हमार मुला शहरन मा तौ नरक भवा
का बीती ई मनई पर जब यो हमरे शहरै मा अइहै
पइसा ते पानी तक मिलिहै पूँछी कोउ नाई याकि जवा
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ 

Tuesday 1 April 2014

दुलरा दुलरा

भर अंक मुझे सम शैशव जागृत माँ मम आज किलोल करो
अवसाद हरो व भरो उर हर्ष व मन्त्र सभी मम बोल करो
दुलरा दुलरा पुचकार व चुम्बन ले मम लाल कपोल करो
जगदम्ब! प्रदर्शित लाड़ सुपुत्र निमित्त अभी मन खोल करो
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ 

Thursday 13 February 2014

एक बासन्ती छन्द मेरा भी-



मधुमास है दिगन्त रससिक्त और मधुवासित निशा उषा कुहुक उठी कोकिला
मदयुक्त यौवन भी अलि कलियों का देख मांग मकरन्द कहें रस मुझको पिला
बढ़ती उमंग की तरंग मस्त छनी भंग पाकर के अवसाद भी लगा खिला खिला
ठिठुरे न शीत से व ताप भी है शान्त तब हर्ष लिए उर मध्य रवि सांझ से मिला
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ 

Tuesday 28 January 2014

मृत्यु

अवसाद समाप्त करे वह निष्क्रिय ही कर दे भवबन्धन को
शयनो हित विष्टर प्राप्त न हों उनको तक दे वह चन्दन को
जग में नित व्याप्त हरे सब व्याधि सुनिश्चित मुक्त करे तन को
तट मृत्यु प्रदान तुरन्त करे मझधार पड़े इस जीवन को


सञ्चित अर्थ करो जितना पल में सब का सब जा सकता है
राज्य व भोगबली नृप को क्षणमात्र दरिद्र बना सकता है
और अभाव बढे मुख मोड़ कुटुम्ब सुबन्ध भुला सकता है
मृत्यु सुपाश करे शुचि प्रेम न वो तुमको ठुकरा सकता है 


यह जीवन को गतिशील बना रखती, इसमें मत संशय हो
इसका उपमान नहीं जग में, बलहीन समक्ष धनञ्जय हो
नवजीवन के हित ये घटना सम है घटती तुम निर्भय हो
सुर ताल हुए सब व्यर्थ तभी जब मृत्यु सुदर्शन की लय हो


जल में थल में नभ में अथवा जग मध्य कहाँ पर मृत्यु नहीं है
सब नश्वर है जड़ चेतन भी किस ओर कहो स्वर मृत्यु नहीं है
शुचि जीवन है दिखता जिस ठौर वहाँ किसके घर मृत्यु नहीं है
जग देख परस्पर निर्भर किन्तु किसी पर निर्भर मृत्यु नहीं है 


जब औषधि एक न लाभ करे उपचारक हो यह मृत्यु मिली
जिसके हित जीवन श्राप रहा वरदा बन तो यह मृत्यु मिली
इति के कर का बल देख मनुष्य! यहाँ सबको यह मृत्यु मिली
जब द्वार न एक खुला, बन मुक्ति सुद्वार लखो यह मृत्यु मिली
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ 

Friday 17 January 2014

'आशुनिकुञ्ज' सवैया छन्द

हिन्दी साहित्य को चमत्कृत कर देने वाला छन्द 'आशुनिकुञ्ज' सवैया छन्द जिसे आज तक हिन्दी साहित्य के किसी साहित्यकार ने नहीं लिखा बड़े हर्ष और आह्लाद के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ...स्नेहाकांक्षी हूँ--

दीनों को देती हो लोकों को खेती हो पाता है वो भी जो हारा हो अम्बे!
धर्मालम्बी लोगों के पापों को धो देने वाली गंगा की धारा हो अम्बे!
दुष्टों को संहारा सन्तों को उद्धारा  वीणा को धारे हो तारा हो अम्बे!
काली हो दुर्गा हो ज्वाला मातंगी हो त्रैलोकी तेरा जैकारा हो अम्बे!
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ