Tuesday 28 January 2014

मृत्यु

अवसाद समाप्त करे वह निष्क्रिय ही कर दे भवबन्धन को
शयनो हित विष्टर प्राप्त न हों उनको तक दे वह चन्दन को
जग में नित व्याप्त हरे सब व्याधि सुनिश्चित मुक्त करे तन को
तट मृत्यु प्रदान तुरन्त करे मझधार पड़े इस जीवन को


सञ्चित अर्थ करो जितना पल में सब का सब जा सकता है
राज्य व भोगबली नृप को क्षणमात्र दरिद्र बना सकता है
और अभाव बढे मुख मोड़ कुटुम्ब सुबन्ध भुला सकता है
मृत्यु सुपाश करे शुचि प्रेम न वो तुमको ठुकरा सकता है 


यह जीवन को गतिशील बना रखती, इसमें मत संशय हो
इसका उपमान नहीं जग में, बलहीन समक्ष धनञ्जय हो
नवजीवन के हित ये घटना सम है घटती तुम निर्भय हो
सुर ताल हुए सब व्यर्थ तभी जब मृत्यु सुदर्शन की लय हो


जल में थल में नभ में अथवा जग मध्य कहाँ पर मृत्यु नहीं है
सब नश्वर है जड़ चेतन भी किस ओर कहो स्वर मृत्यु नहीं है
शुचि जीवन है दिखता जिस ठौर वहाँ किसके घर मृत्यु नहीं है
जग देख परस्पर निर्भर किन्तु किसी पर निर्भर मृत्यु नहीं है 


जब औषधि एक न लाभ करे उपचारक हो यह मृत्यु मिली
जिसके हित जीवन श्राप रहा वरदा बन तो यह मृत्यु मिली
इति के कर का बल देख मनुष्य! यहाँ सबको यह मृत्यु मिली
जब द्वार न एक खुला, बन मुक्ति सुद्वार लखो यह मृत्यु मिली
रचनाकार
डॉ आशुतोष वाजपेयी
ज्योतिषाचार्य
लखनऊ 

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